७ पूवंज-गण २-समस्या बारेट कृष्णसिंह जी की, जैसी मधुराई भूप सजन की भाषा में । जो ही एक बार सुनै मोहे सो जन्म भरि, ऐसो ना असर देख्यो जादू के तमासा में । अरिहु नवावैं सीस. छोटे बड़े रीझे सब, रहत मगन नित. पूर होइ आशा में || देखी ना कबहुं मिसरी मैं मधुहू में ना, रसाल ईख दाख मैं न तनिक बतासा में । अमृत मैं पाई ना अधर मैं सुरांगना के, जेती मधुराई भूप सज्जन की भाषा में ।। ३ -समस्या श्री दरबार की (चन्द्रमा के वर्णन) नवलबधू के मानों पायन परत सो। वृन्दावन सोभा कछु बनि न जाय मोपै, नीर जमुना को जहँ सोहै लहरत सो। फूले फूल चारों ओर लपटें सुगन्ध तैसो, मन्द गंधवाह निज तापहि हरत सो॥ चाँदनी मैं कमल कली के तरें बार बार, 'हरिचन्द' प्रतिबिम्ब नीर माहिं बगरत सो। मान के मनाइबे दो दौरि दौरि प्यारो आज; नवल बधू के मानो पायन परत सो।। ४-असोक की छाँह सखी पिय पेख्यौ । रैन में ज्योंही लगी झपकी, बिजटे सपने सुभ कौतुक देख्यौ । लै कपि भालु अनेकन साथ, में तोरि गढ़े चहुं ओर परेख्यौ । राबन मारि बुवावन मो कह, सानुज में अब हो अबरेख्यौ । सोक नसावत आवत आजु, असोक की छाँह सखी पिय पेख्यौ । इसी अवसर पर भारतेन्दु जी ने प्रात:स्मरणीय महाराणा साँगा तथा प्रतापसिंह के वंशधर इन सूर्यवंशावतंस श्री सजन-