पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/८७

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पूर्वज-गण इन स्थानों के सिवा यह डुमराँव, पटना, कलकत्ता, प्रयाग, हरिहरक्षेत्र आदि स्थानों को भी प्रायः जाया करते थे। आकृति और स्वभाव रचनाओं पर रचयिता के शारीरिक तथा मानसिक विकारादि की छाया पूर्ण रूपेण रहती है। एक ही दृश्य का स्वस्थ तथा अस्वस्थ पुरुषपर दो प्रकार का प्रभाव पड़ता है । प्रकृतिका भी यही हाल है। कंजूस विचार का आदमी उदार पुरुष के समान अपव्यय को को सुव्यय नहीं मान सकता। घीहहे की ओर मुख कर खाते हुए घी का स्वाद लेनेवाला उदार पुरुषों की तरह क्या किसी वस्तु का दान कर सकता है। वह दूसरों को दान करते देखकर छाती कूटता है । प्रत्येक मनुष्य के स्वभाव की प्रतिकृति उसके दिन रात्रि के कृत्यों ही पर जब पड़ती रहती है तब उसकी साहित्यिक रचनाओं पर अवश्य ही पड़ेगी। यही कारण है कि मननशील पाठकगण लेखकों की शारीरिक बनावट तथा उनके स्वभाव आदि से परिचित होना आवश्यक समझते हैं क्योंकि उसी हालत में वे उसकी रचनाओं को पूरी तरह समझ सकते हैं। भारतेन्दु जी कद के कुछ लम्बे थे और शरीर से एकहरे थे, न अत्यंत कृश और न मोटे ही । आँखे कुछ छोटी और धंसी हुई सी थीं तथा नाक बहुत सुडौल थी। कान कुछ बड़े थे, जिनपर शृंघराले बालों की लटें लटकती रहती थीं । ऊँचा ललाट इनके भाग्य का द्योतक था। इनका रंग साँवलापन लिए हुये था। शरीर की कुल बनावट सुडौल थी । इनके इस शारीरिक सौन्दर्य पूर्ण मूर्ति का इनसे मिलनेवालों के हृदय पर उतना ही असर होता था जितना इनके मानसिक सौंदर्य का। इनके