पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/९

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संक्षिप्त जीवनी प्रकाशित की थी, जिसे उन्होंने चार वर्ष बाद संशोषित और परिवर्द्धित करके पुस्तकाकार छपवाया था। इस सौ पृष्ठ की पुस्तक ऐसे नररत्न की जीवनी कहलाने के लिए अपर्याप्त थी और इस पर भी पहिले प्रवासी नामक पत्र में और फिर उसी की देखा-देखी समालोचक नामक पत्र में उसी समय कटाक्ष किया गया था कि सगे-संबंधियों को अपने लोगों का जीवन-चरित्र लिखना न चाहिए प्रवासी की आलोचना कुछ अधिक कठोर थी। भारतेन्दु जी की मृत्यु के बीस वर्ष बाद किसी अन्य को कलम न उठाते देख यदि बा. राधाकृष्णदास जी ने एक छोटी सी जीवनी लिख डाली तो उस पर भी आक्षेप पुरस्कार में मिला । सत्य ही गैरों से कोई मतलब नहीं, अपने भी न लिखें, चलो बस छुट्टी हुई। किसीशायर ने ठीक कहा है- तुम्हें गैरों से कब फुरसत हम अपने गम से कर खाली। चलो बस हो चुका मिलना न तुम खाली न मैं खाली । खड्गविलास प्रेस के स्वामी बा० रामदीन सिंह जी भी भारतेन्दु जी की वृहत् जीवनी पं० रामशंकर व्यास जी से लिख- वाने के प्रयत्न में थे और उसके लिए साधन एकत्र करते रहते थे। इनके स्वर्गवास होने पर तथा व्यास जी के जीवनी लिखना अस्वीकार करने पर इनके पुत्र रामरणविजय सिंह के भाग्रह से वा० शिवनन्दन सहाय जी ने इसे लिखना स्वीकार किया और यह पुस्तक पहिली बार सन् १६०५ ई० में प्रकाशित हुई। इसके अनंतर भारतेन्दु जी की रचनाओं पर यद्यपि छोटे छोटे लेख निकलते रहे पर पुनः किसी ने उनकी जीवनी लिखने का प्रयास नहीं किया। इनमें राय बहादुर वा० श्याम सुन्दरदास जी लिखित भारतेन्दु जी की जीवनी जो नाटकावली की भूमिका में दी गई है अवश्य उल्लेखनीय है। दस बारह वर्ष होते आए कि मैंने