पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/९०

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भारतेंदु हरिचन्द्र 5 ठिठुरा जा रहा था। इन्होंने उसी समय अपना दुशाल उतार कर उसे ओढ़ा दिया और गृह लौट गए। एक बार एक फकार जाड़े ही में ओढ़ना मांगता घूम रहा था। ये घर के दीवानखाने में बैठे सुन रहे थे। उस समय 'ये घर के शुभचिंतकों' के कारण अर्थ कष्ट में थे और उसके देने योग्य इनके पास कोई वस्त्र नहीं था। इन्होंने स्यात् उस देने के लिये कुछ भी कहा हो पर ऐसे 'अपव्ययी' की बात कौन सुनता है । अंत में इन्होंने अपना दुशाला, जिसे वे ओढ़े हुए थे, उतार कर ऊपर हो से फेंक दिया था। अब जिसने इनका यह कार्य देखा उसने तुरंत इनके भाई को खबर दे दी और इस कारण कि दुशाला कीमती था वे दौड़े आए तथा उस फकीर को कुछ रुपये देकर दुशाला लौटाने को आदमी भेजा, पर फकीर ने उसे नहीं लौटाया। ये भाई पर कुछ बक कर चले गए और लाचार होकर उनके लिए दूसरा दुशाला ओढ़ने के लिए भेजा। इसी प्रकार इनकी कन्या ने भी बाल्यावस्था में एक बार अपनी साड़ी ही उतार कर एक भिखमंगिन को दीवानखाने से फेंक कर दे दिया था । एक धनाढ्य महाराष्ट्र काशी आ बसे थे। काशी राज की नकल उतारने का इन्हें व्यसन सा था और कभी कभी उनसे भी अधिक ऐश्वर्य दिखलाते थे । दिन के समय इनकी सवारी के हाथियों के सिर पर पंज शाखाएं जलाई जातो थीं । बुढ़वा मंगल में इनकी मोरपंखी पर जलसा होता था। एक बार इनको मोरपंखी महाराज के कच्छे से जा भिड़ी। काशीराज को प्रसन्न करने के लिये कच्छे पर के भाँड़ों ने एक नकल निकाला और अंत में एक भांड दूसरे भाँड़ को पीटते हुए चिल्ला कर कहने लगा कि 'ठोक ठोक कर ठोकिया बना देंगे।' पर इस धनाढ्य महाराष्ट्र की लक्ष्मी शीघ्र ही समाप्त हो ठोकिया अल्ल