पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/९३

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पूर्वज-गण गई थी। इन्होंने निज स्वभाव, प्रेम, इच्छा आदि को एक कवित्त में इस प्रकार प्रकट किया है- सेवक गुनी जन के, चाकर चतुर के हैं, कविन के मीत चित हित गुन गानी के। सीधेने सों सीधे, महा बाँके हम बाँकेन सों, 'हरीचंद, नगद दमाद अभिमानी के । चाहिबे की चाह, काहू की नपरवाह, नेही, नेह के दिवाने सदा सूरत निवानी के ? सरबस रसिक के, सुदास दास प्रेमिन के, सरवाप्यारे कृष्ण के,गुलाम राधारानी के।। गुणियों तथा कालविदों का इन्होंने अपनी शक्ति से कहाँ तक बढ़ कर सत्कार किया था, इसका आगे कुछ उल्लेख हुआ है पर यह अपने को उनका सेवक और चाकर लिख रहे हैं । इस पद की दूसरी पंक्ति इनका काशी वासी होना ध्वनित कर रहा है। कविमात्र सौंदर्योपासक होते हैं। सौंदर्योगसना ही भक्ति की प्रथम सीढ़ी है, इसे न करनेवाले जड़ हैं । इसका बढ़ना कभी भूषण से दूषण नहीं हो सकता । 'सत्यं शिवं सुन्दरम्'. दूषण हो ही नहीं सकता अन्तिम चरण राधाकृष्ण के चरणों में इनकी अनन्य भक्ति प्रकट कर रहा है। इनकी आँखों में शील भी बहुत था । भाई से अलग होने पर इनके हिस्से के महाराज बेतिया के यहाँ से आए हुए बत्तीस सहस्र रुपये को एक मुसाहिब के यहाँ इन्होंने थाती के रूप में रख दिया। एक दिन वे रोते कलपते इनके यहाँ पहुँचे और कहा कि रात्रि में हमारे घर चोरी हो गई और आपके रुपये रखकर हम अपना भी सर्वस्व गँवा बैठे । यह कहकर वह पुक्का फाड़ कर रोने लगा। भारतेन्दु जी ने हँस कर कहा कि 'यही गनीमत समझो ६