पृष्ठ:भारत की एकता का निर्माण.pdf/१४०

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इम्पीरियल होटल, नई दिल्ली १२५ मुसीबत से उठा हूँ। मेरा इस दुनिया में रहना एक प्रकार से अनुचित ही है, क्योंकि गान्धी जी के साथ मेरा जीवन भर का साथ रहा । मेरा उनका एक प्रकार का वायदा था, कौल था, कि हमें एक साथ जाना है। और मैं पीछे रह गया ! उसका मुझे दुख है और मैंने कोशिश भी की लेकिन मैं तो बच गया हूँ! अब जो कुछ बचा है, मेरी आयु के जो थोड़े दिन, और मुझ में जो थोड़ी- सी ताकत बाकी है, उसे उस काम को पूरा करने में लगाना चाहता हूँ, जो काम गान्धी जी ने छोड़ा है। क्योंकि मैं समझता हूँ कि अगर गान्धी जी जाने समय मुझ से कुछ भी कह सकते तो यही बात कहते कि तुम ठहर जाओ, और मेरा काम पूरा करो। बहुत दफ़ हमारी उनकी बात हुई है । बहुत दिन हम एक साथ रहे । अकेले साथ रहे, एक दूसरे के दुख-सुख में बहुत हिस्सा लिया । इस प्रकार वह चले जाएंगे, स्वप्न में भी मुझे इसका ख्याल नहीं था। और उनके लिए तो इस तरह चला जाना बहुत ही अच्छा हुआ। लेकिन हमारे लिए वह बहुत ही बड़ी शरम की बात है। और हम भी इतने नालायक निकले कि उनको इस तरह से जाने दिये। हमने उनका काम भी पूरा नहीं किया। वह पूरा किया होता, तो इस तरह का घृणित काम ही न होता। या हमने उनकी पूरी रक्षा की होती तो वह चीज़ न होती। लेकिन दोनों में हम गाफिल रहे । अब उसके लिए तो अफसोस ही करना है और हम कर ही क्या सकते हैं ? हाँ, इतना हम जरूर कर सकते हैं, कि जो कुछ उन्होंने अधूरा छोड़ा है, उसी काम को पूरा करें। तभी उनके प्रति हमारी वफादारी ठीक होती है। अभी आप ने जो मानपत्र मुझे दिया है, उसमें मेरी जो तारीफ की है, उसके बारे में मैं क्या कहूँ ? मैं उसके दो हिस्से करता हूँ। एक तो मेरे गवर्नमेंट में आने से पहले के समय की, जब मैं भारत की आजादी की लड़ाई का एक सिपाही था। तब युद्ध के जितने मौके आए, उन सब में सिपाहियों के साथ मैंने भी, जो कुछ मुझ से हो सकता था, करने का प्रयल किया। लेकिन मैं जानता हूँ, मुझे मालूम है कि हमारे मुल्क में सैकड़ों ऐसे लोग पड़े हैं, जिन्होंने स्वाधीमत्रा के युद्ध में अपना सब कुछ बलिदान दे दिया, अपनी जान तक दे दी। उन सब को हम भूल गए। वे सब कहां गए? कच्ची उम्र में अपने कुटुम्ब और अपनी सहूलियतों को छोड़ कर वे चले गए, हँसते चेहरे वाले नौजवान घले गए। उन्होंने मुल्क के लिए कुर्बानी की। उनको न कोई प्रसिद्धि मिली,