पृष्ठ:भारत की एकता का निर्माण.pdf/१५०

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इम्पीरियल होटल, नई दिल्ली कोई और मैं नहीं मानता। गान्धी जी के पास रहकर मैंने यह भी सीख लिया कि न राजाओं से दुश्मनी करना, न कैपिटलिस्ट से दुश्मनी करना, न लैंडलार्ड से दुश्मनी करना और न किसी और से दुश्मनी करना। देश के हित के लिए सब से काम लेना, और सब में एक दूसरे के लिए मुहब्वत पैदा कर अपने-अपने काम करवा लेना, यह बापू के पास से सीख लिया। यह जो स्टेटों का मामला बना है, यह भी उन्हीं के पास मैंने कुछ इल्म पाया था। मैं आपको बताना चाहता हूँ कि जब यह सौराष्ट्र का या काठियावाड़ का एक गुट बना, तो उस रोज़ गान्धी जी को उसकी जितनी खुशी हुई, उतना खुश मैंने कभी उन्हें नहीं देखा था। क्योंकि वह बहुत दिनों से जो बात चाहते थे, वह हो गई। आज आप यह मानपत्र मुझे देते हैं, यह क्या मेरी कृति है ? एक आदमी से क्या होता है ? यह तो मैंने बार-बार कहा है कि यह ईश्वर की कृति है। लेकिन उसके साथ मेरे कई वफादार साथी भी थे। हमारी कैबिनेट तो है ही, उसके साथ बिना तो कोई चीज बन ही न सकती थी। लेकिन मैंने बहुत दफा सुना है कि यह जो पुरानी सिविल सर्विस है, वह तो उसी परदेशी सरकार ने बनाई थी। लेकिन मैं आपसे यह कहना चाहता हूँ कि इस सर्विस में ऐसे- ऐसे रत्ल पड़े हैं, जिनकी कीमत बाहर के लोग नहीं जानते । म भी उनकी कीमत न जानें तो हम राज चलाने के लायक नहीं हैं। ये लोग मेरे साथ न होते, तो यह काम न बनता। अब तो उस सर्विस में चन्द लोग ही हैं, क्योंकि सर्विस तो टूट गई है। पहले पचास-पचपन फी सदी अंग्नेज थे, ठीक-ठीक ५५ फी सदी थे। वे सब तो चले गए। अब जो थोड़े-बहुत लोग, पहले का एक चौथाई हिस्सा, सर्विस में बाकी रही है, उसमें भी चन्द लोग ऐसे हैं, जिनके दिल में यह है कि अब चलो आखिर में जितना फायदा उठा सको, उतना उठा लो। लेकिन उसमें कोई-कोई ऐसे वफादार लोग हैं, जिन लोगों ने बहुत वफा- दारी से देश की सेवा की है, उससे हमारे काम में बहुत मदद मिली है । मैं उन लोगों की कदर न करूं, तो मैं भी नालायक हूँ। आप यह भी समझ लें कि राजाओं ने भी अपना साथ हमें दिया। जैसे हम में सब भले नहीं हैं, बुरे भी हैं, वैसे उनमें भी भले और बुरे दोनों हैं । लेकिन जब देश आजाद हुआ, तो उनको भी ख्याल हुआ कि ये लोग मुल्क का कुछ भला करना चाहते हैं और इस में हमें साथ देना चाहिए । अब जिसके पास राज है उसको छोड़ देना, जिसके पास सत्ता है, उसे छोड़ देना, यह कितनी