पृष्ठ:भारत की एकता का निर्माण.pdf/१६८

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गुजरात और महाराष्ट्र समाज के अभिनन्दनोत्सव में छोड़कर अपना यह जरूरी काम खुद करना है। अब यह जो ट्रक्स चलते हैं, मोटरें चलती हैं, उनको घोड़े के समान पानी नहीं पिलाते, उनको पैट्रोल पिलाना पड़ता है । तो पैट्रोल कहां से लाना है ? हिन्दुस्तान में तो बहुत थोड़ा- सा पैट्रोल है। जो है, उस को भी ठीक से निकालने का अभी तक कोई अच्छा इन्तजाम नहीं है । तो हम क्या करें? गैसोलीन हमारी धरती में काफ़ी पड़ा है, लेकिन कौन निकाले उसे ? आज तक हम तो एक ही इल्म सीखे थे कि चलो जेल में। दूसरी बात तो अभी तक हम सीखें ही नहीं। लड़ाई तो हमने बहुत की, लेकिन राज चलाने का काम इस तरह से नहीं चलता। यह बहुत ही कठिन और विचित्र काम है। सो यह चीज़ भी हमें इधर पैदा करनी है । अब फौज के लिए बारूद-गोला चाहिए, तोप-बन्दूकें चाहिएँ, यह सब पैदा कैसे हो? यह किसी को ख्याल नहीं कि गोला, बारूद कहां से आता है, उसका दाम कितना देना पड़ता है। फौज के लोगों के लिए यूनीफार्म चाहिए, कपड़ा चाहिए। आप के पास टुकड़ा हो न हो, धोती हो न हो, टोपी हो न हो, तो भी काम चल सकता है, पर फौज का काम नहीं चलेगा। फौज के सिपाहियों के पेट के लिए भी आपसे तीन गुना, चार गुना खाना ज़रूर चाहिए, तभी काम चल सकता है, नहीं तो नहीं चलेगा। क्योंकि जिससे लड़ाई का काम लेना उसको इस कदर खाना जरूर देना चाहिए कि वह खब तगड़ा रहे। सब चीजें अगर हम अपने मुल्क में पैदा न करें तो हमारा काम नहीं चल सकता है । और यह सब पैदा करना हो, बारूद-गोला, बन्दुक, तोप, कारें, ट्रकें, जीप्स सब पैदा करनी हों, तो बड़े-बड़े कारखाने चाहिएँ । यह काम चर्खा से नहीं होता। चर्खा की जो फिलॉसफी गान्धीजी की है, वह अगर हिन्दुस्तान माने और दुनिया माने, तो दुनिया में कोई दुखी न रहेगा, न कोई भूखा रहेगा, न कोई नंगा रहेगा। लेकिन वह हमने छोड़ दिया है। हम वह नहीं करते हैं। गान्धीजी ने बार-बार कहा कि हिन्दुस्तान में करोड़ों लोग बेकार पड़े हैं । अगर वे सब एक घंटा भी चर्खा चलाएँ तो और कपड़े की ज़रूरत नहीं रहेगी। लेकिन वह माननेवाले नहीं हैं। यहां घर में पानी का नल लग गया तो कूऐं पर कोई जानेवाला नहीं है । ऐसी हालत हो गई है, तो हमें समझना चाहिए कि या तो गान्धीजी के रास्ते पर चलो, तब कुछ हो सकता है, या उस रास्ते पर चलो, जो दुनिया का रास्ता है । वह रास्ता यह है कि हमारा