पृष्ठ:भारत की एकता का निर्माण.pdf/३२३

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६ २६४ भारत की एकता का निर्माण कपड़ा, चीनी, लोहा, जितनी भी जिन्दगी की ज़रूरियात हैं, वे ज्यादा से ज्यादा. हमारे देश में पैदा हों। उसके लिए कोशिश करना हमारा धर्म है, हमारा कर्तव्य । आपस में झगड़ा करना हो तो जब मुल्क मजबूत हो जाएगा, तब खूब झगड़ा कर लेंगे । कोई कहता है कि हमें तो सिर्फ ईक्वल डिस्ट्रीब्यूशन आफ वैल्थ (धन का बराबर बँटवारा ) पर ही ध्यान देना चाहिए। जितना धन हमारे पास हो, वह सब को बराबर-बराबर सरीखे वाँट देना चाहिए। अभी तक तो ऐसा किसी मुल्क में नहीं हुआ है। फिर भी हाँ, हमारा ध्येय यह हो, तो ठीक है । लेकिन आज हमारे देश में धन ही कहाँ है ? जितना धन यहां है, वह सब बराबर बाँट भी दिया जाए, तो मुल्क भिखारियों का ही मुल्क होगा। उसमें कोई धनवान नहीं रहेगा। सब एक समान भले ही हो जाएं, लेकिन जब तक हमारे देश में समृद्धि नहीं बढ़ेगी, तब तक हमारी जनता का कुछ न बनेगा । तो क्या हमारी आजादी का मकसद यही है ? हमें बीच का रास्ता निकालना चाहिए। कई लोग कहते हैं कि हमारा सारा उद्योग सरकार को अपने हाथ में लेना चाहिए । दूसरी तरफ आप कहते हैं कि सरकार ने चीनी के मामले में क्या किया? और जितने उद्योग हैं, उन्हें हाथ में लेकर सरकार को इसी तरह करना है। सरकार का क्या मतलब है ? सरकार के पास इतने साधन नहीं है कि वह अपनी व्यवस्था ठीक तौर से चला सके। तब भी उसके ऊपर इतना बोझा डालना, कि जो कुछ हमारा है, वह भी बिगड़ जाए तो इससे क्या फायदा? आज मुल्क में जितने उद्योग हैं, और जिस तरह चल रहे हैं, यदि सरकार के हाथ में आकर भी, कम-से-कम आज की तरह चलते रह सकें, तो मैं इस बात पर अपना पहला दस्तखत करूँगा कि हाँ, ले लो, इस सब का राष्ट्रीयकरण कर दो। लेकिन अगर आज ऐसी स्थिति है कि जो है वह भी बिगड़ जाए, तो उसमें कोई भी हैरानी की बात नहीं है । दुनिया के बहुत से देशों में यही स्थिति है । लेकिन इस बात के पीछे उसमें कोई सपना रखता हो कि मुल्क को नष्टभ्रष्ट करके उसके पीछे उसमें से कुछ नई बात निकालेंगे, जैसा कि हमारे साम्यवादी भाई कहते हैं । आप कलकत्ता में देख चुके, जहाँ रोज-रोज कोई ट्राम पर बम्ब फेंकते हैं, तो कोई मोटर पर, मकान पर या किसी फैक्टरी में। जैसे चन्द लोगों ने यह पेशा ही कर लिया हो, जिससे उन्हें कुछ पैसा मिले, कुछ ब्लैक मिले । जब बाहर के लोग अपने अखबारों में हमारे अहवाल का बयान पढ़ेंगे, तो वे कहेंगे कि यह