पृष्ठ:भारत के प्राचीन राजवंश.pdf/१८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

भारतकै प्राचीन राजवश संवत् ग्पा ॐ एकायन चैत्र सुदी रविवार । | जगदेव सन्नि समधि धारा नगर इदार ॥ परन्तु जगईवका विश्वास-योग्य हाल नहीं मिलता। ऐसी प्रद्धि है कि नरवर्मदेवने गड ऑर गुजरत तो था, तथा शाखाका भी वह वडा रसिक शा। महाकाल के मान्दरमें उसके समयमें नैन रनसूरि और शैव विधानवादके वीच एक बड़ी मारी शार्थ हुआ था । एक और स्वार्थका जिक्र अम्मामी लिखे हुए रजसूरिके वनचरितकी प्रशस्ति हैं। यह चरित ३० स० १९९० (३० ० १९३४ ) में लिखा गया । इसमें समुद्रपका परमारों मग होना पाया जाता है (१) मो मानपात्तविञ्चित विद्यान्वयवाघान । दिईजीतपाइपद्म वै म विशागुम्नामदत } ४ ॥ अर्थ समुद्रघोप, जिसने मालमें तर्कशास्त्र पहा था और जो बड़ा भारी विद्वान था, किनका वियागुरु न था ? मतत्व यह कि सभी उसके शिन्य थे। (६) धारा। मरम्मदैवनति हदमापति भ्रमदितव गुरै निद्वननै पक्षियि । वैया रयत मून गुणगणायग्नवद्भाशयो। 'ध मानौरामादिगणभूउग्रवादिनभरियन् ॥ ६ ॥ अर्यत अनुदघोष गौतम आदेके सद्दश विद्वान् भा । उम्रने अपनी विद्वत्ताने नरवमेव टाई राजाको प्रसन्न कर दिया। पॉक्ति प्रथम श्लोक्से अनुमान होता है कि उस समय मारवा विया लेए मसिद्ध स्यान यो । समुद्रको शिष्य गुरमई गई । और सूर मिसूर का शिष्य बनरारि सूरमग मी चा विद्वान था, जैसा कि इस कसे प्रकर होता है - गुम्यदीयामै ष्ट्वान्दै दुधेपुर। मुरे मूरप्रम मनग्यातइकाण ॥