पृष्ठ:भारत के प्राचीन राजवंश.pdf/२३६

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पालवंश। ‘पर की गई चड़ाईसे भी यही सिद्ध होती है, क्योंकि वह चढ़ाई राम्भवतः पिताकै रमयको बड़ा केनेडीके लिंए निपाठने की सर्गः । उस चदाईके समय आचार्य-दीपाङ्कर वनासन (युगया अथवा बिहार ) | में रहता था । गुदमें यद्यपि पहले की विजय हुआ और उसने कई |नगरों पर अपना अधिकार कर लिय; तथापि, अन्तमें, उसे नपपालसे हार माननी पढ़ी। उस समय उक्त आचार्यने बीचमें सड़ कर उन दोनमें आपसमें सन्धि करवा दी। इस समयके कुछ पूर्व ही नयपालने इस गाचार्यको विमलके बौद्ध-विहारका मुख्य आचार्य बना दिया था। कुछ समयके घाव तिब्बतके राजा लहलामा येसिस रोड { Lha Larun Yeseshod ) ने इस आचार्यको तिब्बतमें ले आने के लिये अपने प्रतिनिर्भिको हिन्दुस्तान भेजा। परन्तु आचार्यने इहीं जाना स्वीकार न किया। इसके कुछ ही समय वाइ तिब्बतका वह राजा केद होकर मर गया और उसके स्थान पर उड़ा मजा कानकूच ? Carn-Cab) गद्दी पर बैठा । इसके एक वर्ष बाद कानपने भी नागत्सो ( Nagts ) नामक पुरुषको पूक आचार्यको तिब्बत बुला लाने के लिए दिक्रमशील नगरको भेजा । इस पुरुपने तीन वर्षतक आचार्य राम रहम उन्हें तिब्बत चलने पर राज किंया । जय आचार्य तिब्नेतको रवाना हुए तब मार्ग नयपाल देश पड़ा । वहाँ पहुँचकर उन्होंने रोज नयपालके नाम विमलरटनलैसन नामक पत्र भेजा । तिब्बतमें पहुँचकर बारह वर्षों नाङ उन्होंने निवास किया । एक जगह तेरह वर्ष लिखे हैं) और सम् १०५३ ईसवीमें (विक्रम-संवत् १११०) में, यहीं पर, शरीर छोड़ा। इस हिसाबले सन् १०४२ ईसवी ( विक्रम-संवत् १०९८) के शासपास आचार्य तिब्बतको दाना हुए हो। अतएव उधी सुमम तक' नयपालका नावित होना सिद्ध होता हैं।