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भारतके प्राचीन राजवंश-
 

अनुमानकी ही पुष्टि होती है। उसमें रुदामामा स्वमुजबलसे महाक्षत्रय वनना और दक्षिणापथके शातकर्णको दो बार हराना लिखा है। जपदामाके सिक्कोंपर राजा और क्षप शब्दले सिवा स्वामी शन्द मी लिखा होता है। यद्यपि उन 'स्वामी' उपाधि लेखोंमें इसके पूर्व राजामांक नामंकि साथ भी लगी मिलती है, तथापि सिक्कोंमें यह स्वामी रुददामा दितीयसे ही वरावर मिलती है। जयदामाके समयसे एमके नामोंमें भारतीयता आ गई थी। केवल जद (सद) और दामन इन्हीं दो शब्दोंसे इनकी वैदेशिकता प्रकट होती थी। इसके तांबेके चौरस सिक्के ही मिले हैं। इन पर नाली अक्षरोंमें "राशो क्षपण स्वामी जगदामस" लिखा होता है। इसके एक प्रकारके और भी तांबेके सिपके मिलते है, उन पर एक तरफ हापी बोर दूसरा तरफ उनका चित्र होता है। परन्तु अब तकके मिले इस प्रकारके सिक्कों में माझी लेखका केवल एक आप अक्षर ही पढ़ा गया। इसलिए निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि ये सिक्के जयदामाके ही है या किसी अन्यके।

रुग्दामा प्रथम । [.. ७२(ई.स. १५०वि० स. २00)] यह जददामाका पुत्र और चाटनका पौत्र था। इनके वंशमें यह बड़ा प्रतापी राजा हुआ। इसके समयका शक-संवत् ७२ का एक लेख जूनागडसे मिला है। यह मिटमार-पर्वतकी उस चट्टानके पीछेकी तरफ खुदा हुआ है जिस पर मावशी राजा अशोकने अपना लेस खुदवाया था। इस सिस पाया जाता है कि इसने अपने पराकमसे ही महामनपकी उपाधि प्राप्त