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भारत-भारती


करता नहीं क्या पाप भूखा ? पेट ! हो तेरा बुरा,
है ! छोड़ती सुत तक नहीं उरग क्षुधा से अतुर ! ॥२२॥

शासक यहाँ जो देषियों को साँकलों से कस रहे,
जो अण्डमान समान टापू हैं यहाँ से बस रहे ।
फिर भी दिनोंदिन बढ़ रहा जो घोर घटना-जाल है,
है हेतु इसका और क्या, दुर्भिक्ष या दुष्काल है ।।२३।।

•“कुल, जाति-पाँति न चाहिए, यह सब रहे या जाय रे;
स्त्र एक मुट्ठी अन्न हमके चाहिए अब हाथ में !
इम पेट पपी के लिए ही हम विधर्मी बन रहो,
निज धम्म-मानस से निकल अध-पङ्क में हैं सन रहे ।।२४।।

जिन दूर देशों में हमार धर्म के झण्डे उड़ें---
आकर स्वयं जिनके तले दिन दिन वहाँ के जन जुडें ।
तजना पड़े हमको वहीं के धम्मों पर निज धर्म को !
हा ! देखती है क्या बुभुक्षा-राक्षसी दुष्कर्म को ! ।।२५।।

हे धम्म और स्वदेश ! तुमको बार बार प्रणाम है,
ही ! हम अभाग का हुआ क्या आज यह परिणाम है !
हमको क्षमा करियो, क्षुधा-वश हम तुम्हें हैं खो रहो।
होकर विस्मी हाय ! अब हम हैं विदेशी हो रह।।२६।।
जसे अमेरिका में ।