पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/१०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९३
वर्तमान खण्ड




केवल अवर्षण ही नहीं, अतिं वृष्टि का भी कष्ट है;
बढ़ कर प्रलय-समें प्रवल जल सर्वस्व करता नष्ट है !
देवेऽपि दुर्बलधासः" अथवा अभाग्य कहें इसे ?
किंवा कहो, निज कर्म का मिलता नहीं है फल किसे ? ।।३४।।

अव ऋतु-विपर्यय तो यहाँ आवासे ही-सा है किये,
हात प्रकृति में भी विकृति हा ! भाग्यहीने के लिए।
हेमन्त में बहुधा घन में पूर्ण रहता व्येम है,
पावस-निशाओं मैं तथा हँसता शरद का नाम है.! ।। ३५।।

हो जाय अन्छो भी फ़सल १५ लाम कृषको के कहाँ ?
खाते१, खवाई, बीज-ऋण से हैं रंग रक्खे यहाँ ।
अतिर महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अन्त में,
अधपेट रह कर फिर उन्हें है कॉपनः हेमन्त में ! ।। ३६ ।।

पानी बना कर रक्त का, कृषि कृषक करते हैं यहाँ,
फिर भी अभागे भूख से दिन रात मरते हैं यहाँ ।
सब बेचना पड़ता उन्हें निज अन्न वह निरुपाय है,
इस चार पैसे से अधिक पड़तों न दौनिक आय हैं ? ।। ३७ ।।

१—बहर खाने ।

२.-सरकारी रिपो से मालूम होता है कि प्रत्येक किसान की
दैनिक आय तीन पैसे से कुछ ही अधिक होती है। परन्तु यदि प्रत्येक । किसान की दैनिक अाय चार पैसे भी मान ली जाय तो क्या होता है ।