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वर्तमान खण्ड




उन कृषक-वधुओं की दशा पर नित्य रोती हैं दया,
हिम, ताप, वृष्टि-सहिष्णु जिनको रङ्ग काला पड़ गया !
नारी-सुलभ सुकुमाश्ता इनमें नई है नाम को,
वे कर्कशाङ्गी क्यों न हों, देखो न उनके काम को !! ।।४३।।

गोबर उठाती, थापती हैं, भगत यास थे,
कृषि काटतीं, लेती पोहे, खोदती हैं घास वे !
गृह-कार्य जितने और हैं करतीं वहीं सम्पन्न हैं,
तो मी कदाचित् ही कभी भर पेंट पातीं अन्न हैं ! ।।४४।।

कुछ रात रहते जारी कर चक्की चलाने बैठती,
हुम सच कहेंगे, उस समय के गीत गाने बैठत ?
पर क्या कहें, उसे गोत से क्या लाभ पाने बैठत,
वे सुख बुलाने बैठती, या दुख भुलाने बैठत 11 ।।४५।।

घनघोर वर्षा हो रही है, गगन गर्जन कर रहा,
धर से निकलने को कड़क कर व वर्जन कर रहा !
तो भी कृषक मैदान में करते निरन्तर काम हैं,
किस लभ से वे आज भी लेते नहीं विश्राम हैं ?।।४६।।

बाहर निकलना मौत हैं, आधी अँधेरी रात है,
अः शोल केसा पड़ रहा है, थरथरता है ?
तो भी कृषक ईधन जलाकर खेत पर हैं जागते,
वह लाभ कैसा है न जिसका लोभ अब भी त्यागले ! ।।४७।।