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वर्तमान खण्ड




उनको निरन्तर दुःख ने अब कर दिया थ दीन है-
सुख-कल्पना तक से हुआ उनका हृदय अव हीन है ?
आलोक का अनुभव कभी जन्मान्ध कर सकते नहीं,
सरु-जन्तु सहसा सुरसरी का ध्यान धर सकते नहीं ।। ५३ ॥

प्रामीण गीत यदा कदा चे गान करते हैं सही,
है फाग उनका राग बहुधा और उत्सव मी वही ।
पर चित्त के वे दीन जन किस भाँति बहलाया करे ?
क्या आँसुओं से ही उसे नित्य नहलाया करे ? ।। ५४ ।।

तुम सभ्य हो, ‘मार्केट जिनका सात सागर पार है,
पर ग्राम की चह हाट ही उनका बड़ा बड़ा बाजार है ।
तुम हो विदेशों से मँगाते माल लाखों का यहाँ,
पर वे अकिञ्चन नमक-गुड़ ही मोल लेते हैं वहाँ ।। ५५ ।।

करते सहर्ष प्रदर्शिनी की संर तुम कौतुक भरी,
(क्या लाभ उससे हो उठाते, बात है, यह दूसरों ? )
हो सका है। ग्राम्य-मे देख कर ही धन्य हैं.
मनिहार की दुकान से जिनमें सुदृश्य ने अन्य हैं ।। ५६ ॥

तुम दार्शनिक होईश का अस्तित्व मान्य न मानते;
हैं भूत-प्रेत से अधिक वे भी न उसके जानते }
हा देव ! इसे ऋषि-भूमि का यह आज कैसा हाल है !
तू काल ! सचमुच काल ही है, क्रूर और कराल है ।। ५७ ।।