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भारत-भारती


पाठक ! न यह कह बैठना, छेड़ा कहाँ का रोग है,
यह फूल कैसा है कि इसमें शन्ध है, न पराग है ?
है यह कथा नीरस तदपि इसमें हमारी मारा है,
निकले बिना वाहर नहीं रहती हृदय की अग है ॥ ५८ ।।

गो-वध
है कृषि-प्रधान प्रसिद्ध मारत और कृधि की यह दशा !
होकर रसां यह नीरस अब हो गई है कर्कशा ।
अच्छी उपज होती नहीं है, भूमि वहु परती पड़ी;
गो-वंश का वध ही यहाँ है याद आता हर घड़ी ! ।। ५९ ।।

यूरोप में कल के हल से काम होता है सही,
जुत क्यों न जाती हो अरव में ऊँट के हल से मही ।
-वंश पर हैं। किन्तु है यह देश अवलम्वित सदा,
पर दीन भारत ! हाय रे भाग्य में है क्या बदा ! ।। ६० ॥

ई भूमि बन्ध्या हो रही, वृष-जाति दिन दिने घद रहो;
धी-दुध दुर्लभ हो रहा, बल-वीर्य को जड़ कट रही ।
गो-वंश के उपकार की सव ओर आज पुकार है;
ते मी यहाँ इसका निरन्तर हो रहा संहार है ! ।। ६१ ।।

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