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भारत-भारती


“क्या वश हमारा है मला, हम दीन हैं, बलहीन हैं;
मारो कि पालेर, कुछ करो तुम, हम सदैव अधीन हैं ।
प्रभु के यहाँ से भी कदाचित आज हम असहाय हैं,
इससे अधिक अब क्या कहें, हा ! हम तुम्हारी गाय हैं ।।६६।।

बच्चे हमारे भूख से रहते समक्ष अधीर हैं,
करके ने उनका साच कुछ देती लुम्हें हम क्षीर हैं।
चर कर विपिन में घास फिर तो तुम्हारे पास हैं,
होकर बड़े वे वत्स भी बनते तुम्हारे दास हैं ।। ६७ ।।

जा रहा क्रम यदि यहाँ ये ही हमारे नाश का-
ते अस्त सभा सुर्थ भारत-भाग्य के प्रकाश का ।
जो तनिक हरयाली रहो वह भी न रहने पायगी,
यह स्वर्ण-भारत-भूमि बस भरघटे-भहीं बन जायेगी ! ॥६८।।

“बहुधा हमारे हेतु ही विग्रह यहाँ होता खड़ा;
सहवासियों में बैर का जो बीज बोता है बड़ा ।
जो हे मुसलमानो ! हमें कुवन करना धर्म है--
तो देश की यो हानि करना क्या नहीं दुष्कर्म है ? ।।६९।।

बीती अनेक शताब्दि बाँ जिस देश में रहते तुम्हें,
क्या लाज आवेगो उसे अपना वतन' कहते तुम्हें ?
तुम लोग भारत को कृमो समझो अरब से कम नहीं,
यद्यपि जगत में और कोई देश इसके सभ नहीं ।।७०।।

    • जिस देश के वर-वायु से सकुटुम्ब तुम हो जी रहे,

मिष्टान्न जिसका खा रहे, पीयूष-सा जल पी रहे ।।