पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/१११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०१
वर्तमान खण्ड


जो अन्त में तनु को तुम्हारे ठौर देगा गोद में,
कर्तव्य क्या तुमके नहीं रखना उसे आमोद में ।।१७१॥

जिसमें बुजुर्गों के तुम्हारे हैं शरर मिले हुर,
जिसने उगाये हैं वहाँ छाया वृक्ष खिले हुए ।
क्या मान्य मारिब" की तरह तुमको न हो वह धेर ?
अजमेरे की दरगाह का कर ध्यान सोचो तो जरा ।।७२।।

  • हिन्दू हमें जब पालते हैं धर्म अपना मान के,

रक्षा करो तब तुम हमारी देश-हित ही ज्ञान के ।
यदि तुम कहो---श्रय हम कलों से काम ले लेते सभी,
तो पूछती हैं हम कि क्या वे दूध भी देगी कभी ? ।।७३।।

हिन्दू तथा तुम सब चढ़े हों एक नौका पर यहाँ,
जो एक का होगा अहित तो दूसरे का हित, कहाँ ?
सप्रेम हिल मिल कर चलो, यात्रा सुखद होगी तभी;
पीछे हुआ सो हो गया, अब सामने देखो सभो।।७४।।

हा ! शोचनीय किसे नहीं रो-वंश का यह इस हैं ?
इस पाप से ही बढ़ रहा क्या यह हमारा त्रास हैं !
धृत और दुग्धाभाव ले दुर्बल हुए हम रो रहे,
होकर अशक्त, अकाल में ही काल-क्रयटित हो रहे ।।७५।।

जो नित्य नूतन व्याधियाँ करती यहाँ आखेट हैं,
क्या दीन-दुर्बल ही अधिक होते ने उनको भेट हैं ?

  • देवोऽपि दुलघातकः फिर याद आता हैं यहाँ,

छिद्रध्वन' वाक्य पर भी ध्यान जाता है यहाँ ।।७६।।