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भारत-भारती


सम्प्रति स्वदेशी की हमें है गन्ध भी मातो नहीं,
खस, केकड़ा, बेला, चमेलो चित्त में तो नहीं ।
मस्तक न लेवेंडर' विना अब मस्त होता है अहो !
वस शौक़ पूरा हो हमारा, देश ऊजड़ क्यों न हो ! ॥ ८७ ।।

सब स्वाभिमान डुबा बुझे जो पू-पारावार में--
आश्चर्य हैं, हम आज भी हैं जी रहे संसार में !
किंवा इसे जीना कहें तो फिर कहें मरना किसे ?
जीता कहाँ है वह नहीं है ध्यान कुछ अपना जिसे ! ।। ८८ ।।

अती विदेशों से यहाँ सब वस्तुएँ व्यवहार की,
धन-धान्य जाता है यहाँ से, यह दशा' व्यापार की ?
कसै न फेल दोनता, कैसे ने हुम भूखों मरे ?
ऐसी दशा में देश को भगवाने ही रक्षा करे ।। ८९ ।।

जिस वस्तु के हम दूसरों को बेचते हैं एक में,
ते उस को 'स' में हैं डूब कर अविवेक में !
जो देश ककचा माल ही उत्पन्न करके शान्त है,
उसका पतन एकान्त है, सिद्धान्त यह निश्नन्त ६ ।। ९० ॥

रालोब्रदर इत्यादि को हम वेचते जो माल हैं,
लेते वही पन्द्रह ने तक मूल्य में तत्काल हैं ।
अति विलायत से यहाँ वह माल नाना रूप में,
आश्चर्य क्या फिर हम पड़े हैं जो अँधेरे कूप में ।। ९१ ।।