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भारत-भारती

चर्चा हमारी भी कभी संसार में सर्वत्र थी,
वह सद्गुणों की कीर्ति मानों एक और कलत्र थी।
इस दुर्दशा का स्वप्न में भी क्या हमें कुछ ध्यान था,
क्या इस पतन ही को हमारा वह अतुल उत्थान था ! ।। ४ ।।

उन्नत रहा होगा कभी जो हो रहा अवनत अभी,
जो हो रहा अवनत अभी, उन्नत रहा होगा कभी ।
हँसते प्रथम जो पद्म हैं तम-पङ्क में फँसते वही,
मुरझे पड़े रहते कुमुद जो अन्त में हँसते वही ।। ५ ।।

उन्नति तथा अवनति प्रकृति का नियम एक अखण्ड है,
चढ़ता प्रथम जो व्योम में गिरता वही मार्त्तण्ड है ।
अतएव अवनति ही हमारी कह रही उन्नति-कला,
उत्थान ही जिसका नहीं उसका पतन ही क्या भला ? ।। ६ ।।

होता समुन्नति के अनन्तर सोच अवनति का नहीं,
हाँ, सोच तो है जो किसी की फिर न हो उन्नति कहीं ।
चिन्ता नहीं जो व्योम-विस्तृत चन्द्रिका का ह्रास हो,
चिन्ता तभी है जब न उसका फिर नवीन विकास हो ।। ७ ।।

हैं ठीक ऐसी ही दशा हतभाग्य भारतवर्ष की,
कब से इतिश्री हो चुकी इसके अखिल उत्कर्ष की ।
पर सच है केवल यहा यह नित्य गिरता ही गया,
जब से फिरा दैव इससे नित्य फिरता ही गया ।। ८ ।।