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भारत-भारती




जिस मति भारतवई का व्यापार नष्ट किया गया,
कर से तथा प्रतिरोध से जिस भॉति भ्रष्ट किया गया ।
वर्णन वृथा है उस विषय का सेवन अब है यहीं---
किस भाँति उसकी वृद्धि हो, जैसे कि पहले थी रही ।। १०४ ।।

यदि हम विदेशी माल से मुह मेड़ सकते हैं नहीं तेा हाय !
उस्का मोह भी क्यों छेड़ सकते हैं नहीं ?
क्या बन्धुओं के हित तनिक भी त्याग कर सकते नहीं ?
निज देश पर क्या अल्प भी अनुराग कर सकते नहीं ? ।।१०५।।

३ दीन, पर क्या देश की ऐसी अवस्था भी नहीं--
अावश्यकीय पदार्थ जी बनने लो’ क्रम से यहीं ?
कल-कारखाने खेल में ऐसे धनी म हैं हम,
पर कैन्न झाड़े में पड़े, हमके भला है क्या कर्मी ।। १०६ ।।

तुम मर रहे हो ते मरो; तुमसे हमें क्या काम है ?
हमकें। किसी की क्या पड़ी है, नाम है, धन-धाम है ।
तुम न हो, जिनके लिये हमके यहाँ अवकाश हो;
सुख भोगते हैं हम, हमें क्या जेर किसी का नाश हो ! ॥१०७॥

राजा-रईस की यहाँ हैं आज ऐसी हो दशा,
अन्धा बना देता अहो ! करके बधिर मद का नशा ।।
बस भोग और विलास ही उनके निकट सव सार है,
संसार में हैं और जो कुछ वह भयङ्कर मार है ! ।। १०८ ।।