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वर्तमान खण्ड




हम तो हुए ही पतित पर दुभवि जो भरते गये-
सुकुमार भावी सृष्टि को श्री चे पतित करते गये !
हा ! उच्च भावां के वही क्रम आज भी हैं खो रही,
अश्ल ग्रन्थों से हमारा शाल चेपट हो रहा ! ॥१५९।।

अव सिद्ध हिन्दी है। यहाँ के राष्ट्र-भाषा हो रही,
पर है वह सबसे अधिक साहित्य के हित रो रही !
रोते पड़े अत्र तुक अहा ! उसके अग्विद्ध भण्डार हैं,
गुल्मी तथा बुरादि के कुछ अन्न ही आर हैं ! ! ॥१६०।।

कविता


'इश कवितई छा छ ङ्गर र ही हो गया,
उन्परन्त होकर ने हमारी अब उसी में खो गया !
कवि-कम्# कामुकता बढ़ान रहे हैं। वे उहाँ,
वह बार रन भी स्वर-भर में हो गया २रित अह ।।१६१।।

चं, हमारे अर्थ हैं वह बात कैसे शोक की-
श्रीकृष्ण को हुन अाइ लेकर हामि करत लोक की
भगवान को दक्ष बन कर यह अनङ्पाला !
है धन्य में कविवर का, शुन्य अनुक्रकी चुमिना ।।१६२।।

उपन्यास


हैं और अपन्यासिक का एक नेतन दल यहाँ,
फल रहा है जो निन्ददै अर् भी हचद य३ ।
रात्म्य ही अब लोक-कचि पर हो रही है सच कही.
हा स्वा ! तरी जय, अरे, तू क्य। कर सकता भई? ।।१६३।।