पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/१३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२६
भारत-भारती


श्रुति क्यों न हो, प्रतिकूल हैं जो स्थल वही प्रक्षिप्त हैं,
विक्षिप्त से हम दम्भ में अपाद-मस्तक लिप्त हैं ।
आक्षेप करना दूसरों पर निष्ठा है यहाँ,
पाखण्डियों हो की अधिकतर अब प्रतिष्ठा है यहाँ ! ।।१८३।।

हम आड़ लेकर धर्म को अब लोन हैं विद्रोह में,
मत ही हमारा धर्म है, हम पड़ रहे हैं भोह में !
है धम्म बस निःस्वार्थता ही, प्रेम जिसकी मूल है;
भूले हुए हैं हम इसे, कैलो हमारी भूल है ? ।।१८४॥

जिसके लिए संसार अपना सर्वकाल ऋणी रहा,
उस धर्म की भी दुर्दशा हमने उठा रक्खी न हो ?
जे धर्म सुख का हेतु है, भव-सिन्धु का जो संतु है,
देखो, उसे हमने बनाया अब कलह का केतु है !! ।।१८५।।

उइश है बस एक, यद्यपि पथ अनेक प्रमाण हैं-
रुचि-मिन्नत किये गये जो ज्ञान से निमणि हैं ।।
पर अब पथों के ही यहाँ पर धस्स हैं हम मानते !
करके परस्पर घोर निन्दा व्यर्थ हो हठ ठानते ।।१८६।।

प्रभु एक किन्तु असंख्य उसके नाम और चरित्र हैं,
तुम शैव, हम वैष्णव, इसीसे ही अभाग्य ! अमित्र हैं।
तुम ईश को निपुण समझते, हम सगुण भी जानते,
हा ! अब इसीसे हम परस्पर शत्रुती हैं मानते ! ॥१८७।।