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भारत-भारती




वे अप ते हैं ही पतित, कामी, कु-पथगामी बड़े--
पर पाप के भाग हमें भी हैं बनाने के खड़े ।
हम-भस्म में घृत के सदृश देते उन्हें जो दान हैं---
वस वे उसी से दुव्र्यसन के जोड़ते सामान हैं ।। १९३ ।।

मन्दिर और महन्त


कैसी भयङ्कर अब हमारी तो-यात्रा हो रही,
उन मन्दिरों में ही विकृति को पूर्ण मात्रा हो रही !
अड्डे-अखाड़े बन रहे हैं ईश के अावास भी,
अती नहीं है लोक-ला अब हमारे पास भी ।। १९४ ।।

हा ! पुण्य के भाण्डार में हैं भर रहीं अध-राशियाँ,
हैं देख आप भहन्ती हो, देवियाँ हैं दुनियाँ !
तन, मन तथा अन भक्तजन अर्पण किया करने जहाँ-
वे भण्ड साधु सु-कम्मे का तग किया करते वहाँ ! ! ।।१९५।।

अझ मन्दिरों में रामनिये के विना चलता नहीं,
अश्लील गीतों के विना वह भक्ति-फल फलता नहीं ।
वे चीरहरणादिक वह प्रत्यक्ष लीला-जाल हैं,
भक्त-स्त्रियाँ है गैरपियाँ, गेस्वाभि ही गोपाल हैं !!! ।। १९६।।

साधु-सन्त्र


वे भूरि संख्यक साधु जिनके पन्थ-भेद अनन्त हैं-
अवधूत, यति, नाग, दासो, सन्त और महन्त हैं ।
हा ! गृहस्थों से अधिक हैं आज रोगी दीखते,
अत्यल्प हो सच्चे विरागो और त्यागी दखते ॥ १९७ ।।