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भारत-भारती




कुछ ‘शोन्न-वोध' रटा कि फिर वे गणक-पुङ्गव बन गये, पञ्चाङ्ग पकड़ा और बस सर्वज्ञता में सन गये । ।
सङ्कल्प तक भी शुद्ध वे साद्यन्त कह सकते नहीं,
वे पखरवाये पाद-पङ्कज किन्तु रह सकते नहीं ।। २०३ ॥

सन्देह हैं, जप के समय क्या मन्त्र जपते मौन वे,
हैं “ॐ नम:'-वा ‘हा ! निमन्त्रण’ पाठ करते कैन वे !
निश्चय नहीं दृग बन्द कर में लीन ही भगवान में---
या दक्षिण की मञ्जु-मुद्रा देखते हैं ध्यान में ! ।। २०४॥

जिन ब्राह्मणां ने लोभ के सुन्तत तिरस्कृत था किया--
देखा, उन्हीं के वंशजों के आज उसने प्रस लिया। अब आप उनको दक्षिण पहले नियत कर दीजिये -
फिर निन्द्य से भी निन्द्य उनसे काम करवा लीजिये ! ।।२०५।।

अचार उनका अाजे केवल रह गया ‘असनान’ में,
‘जप, तप तथा वह तज अव है शेष वाह्य-विधान में !
वे भ्रष्ट वद्यपि हो रहे हैं डूब कर अज्ञान में,
जाते मरे हैं किन्तु फिर भी वंश के अभिमान में ? ।। २०६ ।।

था हाय ! जिनके पूर्वजों ने धन्य धरणीतल किया,
इस लोक की, परलोक की, प्रश्नावली के हल किया।
सर्वत्र देखे, आज वे कैसे तिरस्कृत हो रहे,
खेाकर तपेावल, ज्ञान-धन, जाते हुए मृत हो रहे । ।।२०७ ।।