पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/१४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३१
वर्तमान खण्ड




है ब्राह्मणों की यह दशः अत्र क्षत्रियों को लीजिए,
उनके पतन का भी भयङ्कर चित्र-दर्शन कीजिए।
अविवेक तिमिराच्छन्न अब वे अन्ज से हो रहे, हा !
सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी बोर कैसे हो रहे ? ।।२०८।।

विश्वेश के बाज अतः कर्तृत्व के जो केन्द्र थे,
जो छत्र थे निज देश के, मृद्धऽभिषिक्त नरेन्द्र थे ।
अलस्य में पड़ कर वही अब शव-सदृश हैं सो रहे;
कुल, मान, भयौदा-सहित सस्व अपना खो रहे ।।२०९।।।

वीरव हिंसा में रहा जो मूल उदके लक्ष्य को,
कुछ भी विचार उन्हें नहीं है अज भक्ष्याभक्ष्य का ।
केवल पतंग विमों में, जलचों में नाव हो,
बस भोजन चतुष्पद में चारपाई बच रहा ! ।। २१० ।।

जिनसे कभी उपदेश लेने विप्न भई अनु रहे,
वित्र्यात ब्रह्म-ज्ञान का जो मार्ग दिखलाते रहे।
खा, उन्हीं में पड़ गई है अई अविद्या के प्रया,
है स्वप्न अाज विह, कौशल और काश की कथा ! ।। २११ ।।

जी हैं अधीश्वर, इस प्रज्ञा पर कर ना जानते,
निद्रव्य, डाका डालना भी धर्म अपना मानते !
जो स्वासिम रक्षक रहे थे आज भक्षक बन रहे,
जो हार थे मन्दार कें वे आज तक्षक बन रहे ! ।। २१२ ।।