उपवीत पहने देख उनका धम्म-भाग्य साहिए,
पर तालियों के बाँधने के रज्जु भो त चाहिए ! ।। २२२ ।।
चन्दा किसो शुभ-कास्या में दो चार सौ जे है दिया
तो यज्ञ मान विश्वजित ही है उन्होंने कर लिया !
बनवा चुके मन्दिर, कुआँ या धम्मशाला जे कहीं,
हा स्वार्थ, ते उनके सदृश सुरभो सुयश मारी नहीं ! ! ।।२२३।।
औदाय उनका दीखता है एक मात्र विवाह में,
ब्रह् जाय चाहे वित्त सरि नाच-रङ्ग-प्रवाह में ।
व वृद्ध होकर भी पता रखते विषय की थाह का,
शायद मरे भी जी उठे वे नाम सुन कर व्याह' का ! ।।२२४ ।।
उद्योग-वल से देश का भाण्डार जे मरते रहे
फिर यज्ञ अःि सुकुम्भ में जे व्यय उसे करते रहे।
वे आज अपने अप हो अपघात अफ्ना कर रहे,
निज द्रव्य खाकर बेर अघ के धट निरन्तर भर रहे ।। २२५ ।।
जव मुख्य-वर्ण द्विजातियां का हाल ऐसा है यहाँ,
तब क्या कहें, उस शूद्रकुल का हाल कैसा है यहाँ ?
देखा जहाँ हाँ ! अव भयङ्कर तिभिर-पूरित गर्त है, यह दीन देश अधःपतन को बन गया अनि है ! ।। २२६ ।।
रंगस्थल ।