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भारत-भारती




रखत यही गुण वे कि गन्दे गीत गाना जानती,
कुल, शील, लज्ला उस समय कुछ भी नहीं वे मानत है।
हँसते हुए हम भी 'अहो ! ३ गीत सुलते सब कहीं,
रोदन करो हे भाइयो ? यह बात हँसने की नहीं है ।। २३२।।

है ध्यान पति से भी अधिक आभूषणों को अब उन्हें,
सब तुष्ट हों तो हों कि मढ़ दो मण्डनों से जब उन्हें ।
है यह उचित ही, क्योंकि जब अज्ञान से हैं दूषिता-
क्या फिर भला आभूषणों से भी न हों वे भूषिता १ ।।२३३।।

अत्यल्प भी अपराध पर डंडे उन्हें हम मारते,
पर हेतु उनको मूख्तर का सोचते न विचारले ।
हैं हाय । दोषी तो स्वयं देते उन्हें हम दगड हैं,
आश्चर्य क्या फिर पा रहे जो दुःख आज अखण्ड हैं ॥ २३४ ।।

ऐसी उपेक्षा नारियों की जब स्वयं हम कर रहे,
आफ्ना किया अपराध उनके शीश पर हैं धर रहे ।
मागें न क्यों हमसे भी फिर दूर सारी सिद्धियाँ,
पार्ती स्त्रियों अदिर जहाँ रहती वहीं सब ऋद्धियाँ ॥२३५॥

हम डूबते हैं आप तो अघ के अँधेरे कूप में-
हैं किन्तु रखना चाहते उनको सती के रूप में ।
निज दक्षिणाङ्ग पुरीष से रखते सदा हम लिप्त हैं,
‘वामा में चन्दन चढ़ाना चाहते, विक्षिप्त हैं ? ॥ २३६।।