पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/१५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४०
भारत-भारती




सु-विचार के साम्राज्य में कु-विचार की अब क्रान्ति है,
सर्वत्र पद् ई पर हमारी प्रकट होती भ्रान्ति है ।।२४८।।

वैज्ड विवाह


प्रति वर्ष बिधव-वृन्द की संख्या निरन्तर बढ़ रही,
ती कमी झाश है, फटती कसी हिल करे मही ।
हा ! देख सकता कौन ऐसे दुग्धकारी दाह को ?
फिर भी नहीं हम छोड़ते हैं बल्यि-वृद्ध-विवाह को ! ।।२४९॥

अन्धपरम्परा


सव अङ्ग दूषित हो चुके हैं अब समाज-शरीर के,
संसार में कल रहे हैं हम झकोर लकीर के !
क्या बद्दों के समय की बतिय हम तोड़ दे ?
रुग्ण हे ते? क्यों न हम मी स्वस्थ रहना छोड़ दे ! ।।२५०।।

वर-कन्या-क्रिय


विकता कहर वर है यहाँ बिकती तथा कन्या कहीं,
क्या अर्थ के अागे हमें अब इष्ट आत्मा भी नहीं !
हो ! अर्ध, तेरे अर्थ हम करते अनेक अनर्थ हैंधिक्कार,
फिर भी देर नहीं सम्पन्न और समर्थ हैं ? ।।२५१।।

क्या पाप का धन भी किंस का दूर करता कष्ट है ?
उस प्राप्तकत्त के सहित वह शीघ्र होता नष्ट है।
अश्विनी क्या है, जो दशा फिर हो हमारी भी वही,
पर लोम में पड़ कर हमारी बुद्धि अब जाती रहीं ! ।।२५२।।