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वर्तमान खण्ड




हैं धन कमाने के हमारे और हो सघन यहाँ,
ही कमाऊ और उद्यमशील ऐसे जन हाँ ?
हमके दुराई कुछ नहीं कोई कहे जो आ हमें,
अत्यन्त हीन-चरित्र अब तो जानती है जग हमें ।।२५३॥

निज स्वत्व, पर-सम्पत्ति पर कोई जमाता है यहाँ
कोई शकुनि का अनुकरह धन कमति है यहाँ ।
कहने चले फिर लाज क्या, इसने ! फ्रन्तु हरे ! इथे । रा, चोर, वञ्चक और कितने धैं सस्वर यहाँ भरे !१! ।।२५४।।

सच हो कि झूठ, किसी किसी का साक्ष्य पर ही लक्ष है, परलोक में कुछ हो, यहाँ तो लाभ ही प्रत्यक्ष है !
सत्कार जमाता-सहश अहिर , उपहार में,
सेयो, भल है लाभ ऐस्ता और किस व्यापार में १ ।।२५५।।
 
कर के मिलावट हो, विदेशी खाँड़ में गुड़ को यथा,
इरसे बहुत हैं देश के धन-धम्म दोनों सर्वथा ।
यां हुई स्वदेश में विदेशी मइले बिकता है यहाँ ।
होगा कर स्वार्थाग्नि में यो सत्य का स्वाहा कहाँ ? ॥२५६ ।।

अब विन्न व्यवसायी जल की ओर भी तो कुछ बढे,
उन चाह चित्र-विचित्र वर विझापनों को तो पढ़ो ।
मानों वहाँ वैकुंठ को ही चमत्कार भरा पड़ा !
इ ! वन का बाह्य-दर्शन है मनोभक बड़ा ।। २५७ ।।