पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/१५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४२
भारत-भारती




केाई सुधा देकर हमें देता अमरता है वहाँ,
दे यन्त्र-मन्त्र, अभीष्ट केाई सिद्ध करता है वहाँ ?
कुछ लाभ हो कि न हो हमें पर यह अवश्य यथार्थ हैन ‘सत्यवक्ता’ सज्जन का सिद्ध होता स्वार्थ है ।।२५८।।

अपकार-कत घृतं वे उपकारियों के वेश में-- हा !
लूटपाट मचा रहे हैं दिन दहाड़े देश में ।
उनके विकृत विज्ञापनों से पूर्ण रहते पत्र हैं,
एजेंट जेन्टलमैन बनकर घूमते सर्वत्र हैं ।।२५९।।

मांगना-खाना


कर-युक्त भी क्या कार्य करना चाहते हैं हम कमी ?
क्या हम कुलीन कुली बनें ? होग? ने हमसे श्रम कमी ।
है मान रक्खा काम हमने माँगना आरमि ,
जीते यहाँ पर हैं बहुत खाकर सदैव हराम का ? ॥२६०॥

हम नीच को ऊँचा बनाव भीख के पीछे कभी,
बनत कभी हम आप योग अरि सन्तादिक सभी ।
केाई गिने, कितने यहाँ पर माँगने के ढक्क हैं,
नट-तुल्य पल पल में बदलते हम अनेक रङ्ग हैं ! ॥२६१॥

दासत्व


दुसित्व करना भी हमें या न अच्छी रीति से,
करते उसे भी हम अधम हैं अव अधर्भ-अनीति से !
वह स्वामि-काय बने कि बिगड़े किन्तु अपना काम हो,
इस नोचर की नीचता का अत्र हो, क्या नाम हो ? ।।२६२।।