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भारत-भारती


हों के माँ के लुत कई व्यवहार सबके भिन्न हों,
सम्भव नहीं यह किन्तु जो सम्बन्ज-बन्धन छिन्न हों ।
पर यह असम्भव भी यहाँ प्रत्यक्ष सम्भव हो रहा,
राष्ट्रीय भाव-समूह माने सईद का सा रहा ! ।। २७७ ।।

अनुदारता यदि एक अद्भुत वात केाई ज्ञात मुझके हो गई--
तो हाय ! मेरे साथ ही संसार से वह खा गई ।
उसको छिपा रक्यूँ न मैं तो कौन पूछेगा मुझे;
कितने प्रयोग-प्रदीप इस अनुदारता से हैं बुझे ! ।। २७८ ।।

ह-कलह इस गृह-कलह के अर्थ भारत-भूमि रणचण्डी बनी, जीवन अशान्तिपूर्ण सव, दीन हो अथवा धनी !
जब यह दशा है गेह की, क्या बात बाहर की कहें ?
है कौन सहृदय जन न जिसके अब यहाँ आँसू व १ ।।२७९।।

उण्डे उप्र अनैक्य ने क्षय कर दिया है क्षेम का,
विष ने पद हर लिया है आज पावन प्रेम का।
इष्य हमारे चित्त से क्षण भात्र भी हटती नहीं,
दे। भाइयों में भी परस्पर अब यहाँ पटती नहीं ! ।। २८० ।।

इस गृह-कलह से ही, कि जिसकी नँव है अविचार की--- निन्दित कदाचित् है प्रथा अब सुम्मिलित परिवार की ।
पारस्परिक सौहार्द अपना अन्यथा अश्रान्त था,
हाँ, सु-वसुधैव कुटुम्बकम, सिद्धान्त यह एकान्त था ।।२८१।।