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वर्तमान खण्ड


व्यभिचार


व्यभिचार ऐसा बढ़ रहा है, देख लो, चाई जहाँ;
जैसा शहर, अनुरूप उसके एक चला है वहाँ ?
जाकर जहाँ हम धम्न खोते सदैव सहर्ष हैं,
होते पतित, कङ्गाल, रोगी सैकड़ों प्रतिवर्ष हैं ।।२८२।।

वह कौन धन है, दुर्व्यसन में हम जिसे खते नहीं ?
उत्सव हमारे बारवधुओं के विस होते नहीं !
सर्बत्र डी पिट रही है अ उन्हीं के नाम की,
मानी अन्त्रिी दही हैं अब यहाँ शुभ-काम की !! ॥२८३॥

था शेष लिखने के लिए क्या इस अभागे को यही ?
भगवान् ! भारतवर्ष को कैस अधदाति हो रही है
यदि अन्त हो जाता हमारा त्यागते ही शील के ,
तो आज ॐ त न लाते अय्यकुल को नील के ।।२८४।।

हा । वे तपोधन ऋषि कहाँ, सन्तान हम उनको कहाँ ?
थी पुण्यभूमि प्रसिद्ध जो हा ! आज ऐसा अध वहाँ !
बस दीप से कज्जल सदृश निज पूजों से हम हुए,
३ लेक में अलोक थे पर हम निविड़तर तम हुए !! ।।२८५।।

आडम्बर


यद्यपि : मैं कमाई ब-दादी की सी,
पर छठ वह अपनी मला हम छोड़ सकते हैं कभ ?
भूषण विके, ऋण मी बढे, पर धन्य सब कोई कहे;
हालां जले भीतर न क्यों, बाहर दिवालों ही रहे !!! ।।२८६।।