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भारत-भारती

लखते न अघ की ओर थे वे, अघ न लखता था उन्हें;
वे धर्म को रखते सदा थे, धर्म रखता था उन्हें।
वे कर्म से ही कर्म का थे नाश करना जानते,
करते वही थे वे जिसे कर्तव्य थे वे मानते॥२१॥

वे सजग रहते थे सदा दुख-पूर्ण तृष्णा-भ्रान्ति से,
जीवन बिताते थे सदा सन्तोष-पूर्वक शान्ति से।
इस लोक में उस लोक से वे अल्प सुख पाते न थे,
हँसते हुए आते न थे, रोते हुए जाते न थे॥२२॥

जिनकी अपूर्व सुगन्धि से इन्द्रिय-मधुपगण थे हिले, 
सद्भाव-सरजित वर जहाँ पर नित्य रहते थे खिले।
लहरें उठाने में जहाँ व्यवहार-मारुत लग्न था,
उन्मत्त आत्मा-हंस उनके मानसों में मग्न था॥२३॥

वे ईश-नियमों की कभी अवहेलना करते न थे,
सन्मार्ग में चलते हुए वे विघ्न से डरते न थे।
अपने लिए वे दूसरों का हित कभी हरते न थे,
चिन्ता-प्रपूर्ण, अशान्ति-पूर्वक वे कभी मरते न थे॥२४॥

वे मोह-बन्धन-मुक्त थे, स्वच्छन्द थे, स्वाधीन थे;
सम्पूर्ण सुख-संयुक्त थे, वे शान्ति-शिखरासीन थे।
मन से, वचन से, कर्म्म से वे प्रभु-भजन में लीन थे,
विख्यात ब्रह्मानन्द-नंद के ये मनोहर मीन थे॥२५॥