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भारत-भारती




स्वाधीनता निज धम्मा-बन्धन तोड़ देने में रही,
अस्वाद आमिष में, सुरा में सरलता जातो कही है।
सङ्गीत विषयालाप में, पर-दुःख में परिहास है,
अश्लोल वर्णन सत्र में ही अब कवित्व-निवास है ? ।।२९७।।

वह चुण रूप उपाधियों में रह गया अब मान है;
बहुधा अपव्यय में यहाँ अब दीख पड़ता दान है ।
बस व्यसन और विवाह में अवशिष्ट अत्र औदार्य है।
हा देव ! हिन्दू जाति का क्या अन्त अव अनिवार्य है।।२९८।।

है शील प्रायः पूर्वजों में, एकता अभियान में,
उपकार-जन्य कृतज्ञता है न्यवाद-प्रदान में ।
पोशाक में शुचिता रही, बस क्रोध में हो कान्ति है;
अति दीनता में नम्रता है. स्वन में सुख-शान्ति है ! ।।२९९।।

दुर्गण


अत्र है यहाँ क्या १ दम्भ है, दौर्बल्य है, दृढ़-द्रोह है,
अलग्य, ईर्ष्या, द्वेष है, मालिन्य है, मद, मोह है।
है और क्या ? दुर्बल जनों को सब तरह सिर काटना,
पर साथ ही बलवान को है इदान-सम पग चाटना ।।३००।।

अपने लिए यदि दूसरों को दुःख देना धम्म हो,
यदि ईश-नियमों का निरादर न्याय से सत्कर्म हो ।
निश्चेष्ट होकर गैठने में हो न पुण्यों की कमी-
तो भुक्ति के भाई हुर्मी हैं, मुक्ति के भागी भई ।।३०१।।