पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/१६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५१
वर्तमान खण्ड




अभाव


कर हैं हमारे किन्तु अब कतृत्व हममें है नहीं,
हैं भारतीय परन्तु हम बनते विदेशी मुद कहीं !
रखते हृदय हैं किन्तु हम रखते न सहृदयतः वहाँ,
हम हैं मनुज पर हाये ! अब मनुज़त्व हममें है कहाँ ? ।।३०२।।

मन में नहीं है, वल हमारे, तेज चेष्टा में नहीं,
उद्योग में साहस नहीं, अपमान में न घृणा कद्दों
दासत्व में स यहाँ अरुचि है, भ्रम में श्यिता नहीं;
है। अन्त में आशा कहाँ ? कर्वेन्य में क्रियता नहीं है। ।।३०३ ।।

उत्साह उन्नति का नहीं हैं, खेद अवनति का नहीं,
है स्वल्प-सा भी ध्यान हमके समय को गति का नहीं ।
हम भारुता के भक्त हैं, अति विदित विषयासक्त हैं,
श्रम से स्वदेव चिरक हैं, अलक्ष्य में अनुरक्त हैं ।। ३०४ ।।

हिन्दृ-समाज्ञ सभी गुणों से आज कैसा हीन है,
वह क्षीण और मलान , अस्य में हो लीन है।
परतन्त्र पदे पद पर विपद् में पड़ रहा वह दोन है,
जीवन-मरण उसका यहाँ अब एक देवाचंद है ।। ३०५ ।।

हा ! -सन्तति आज कैसी अन्य और अशक्त हैं,
पनि हुअा अा अा हा नाड़ियां का रक्त है ?
संसार में हमने कि बस एक ही यह काम है--
निज पूर्वजों का से; तरह हमने डुयेया नाम है ?।। ३०६ ।।