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भारत-भारती




दुःशीलता दासी हमारा, सूर्णतः महिषी सदा,
है स्वार्थ सिंहासन हमारा मोह मन्त्री सदा ।
यों पाप-पुर में राजद हा ! कौन पादा चाहता ?
चढ़ कर गधे पर कौन जुन अँकुण्ठ जाना चाहता ? ।।३०७ ।।

भारत ! तुम्हारा आज यह कैसा भयङ्कर वेष है ?
है और सब निःशेष केवल नाम ही अब शेष है !
ब्रह्मत्व, राजन्यत्व युत वैश्यत्व भी लवे नष्ट है,
शृद्रत्व और पशुत्व ही अवशिष्ट है, हा ! कष्ट है । ।।३०८ ।।

हा दीनबन्धा ! क्यों हमारा नाम ही मिट जाया,
अब फिर कृपा-कण भी न क्या भारत तुम्हारा पाथा ?
हा राम ! हा ! हा कृष्ण ! हा ! हा नाथ ! हा रक्षा करो;
मनुजःव दे हम दयामय ! दुःख-दुलता हो ।। ३०९ ।।