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श्रीहरि:

भक्ष्यतू खण्ड


हतभाग्य हिन्दु-जांति ! तेरो पुइन है कहाँ ?
वह शाल, शुद्धाचार, भन देख, अझ क्या हैं यहाँ ।
क्या जान पड़ता वह कश्रा अब स्व की-नो है नहीं ?
हम हैं वहो, पर पु नि इ2 अाते हैं कहीं ? ।। १ ।।

धान अनेक शतदिइयाँ दूर ३ ! नू जाग नहीं;
ह, कुम्भक नर : नन उनिक भइ था। नई !
३ कहर एज हम चर में अक हमें---
पाँर् वद्दाब" शोक से, इस देय में पाकर हमें ! ।।२।।

अब भी संभव है जागने का देख अख' खाल के,
सब जग जाता हैं दुॐ जग कर स्वयं जय बोल के ।।
निःशक्त यद्यपि हो चुकी हैं किन्तु तू न मर अभी,
अत्र भो पुनजीवन-प्रदायक साज हे सम्मुख भी ।। ३ ।।

हम कौन थे, क्या होगये हैं, ज्ञान को इसका पता,
जो थे कर्म गुरु, है न उनमें शिष्य की भी योग्यता !
ओ थे सभी से अगनी, आज पीछे भी नहीं,
है दोनों संसार में विपरीतता ऐसी कहाँ ? ।। ४ ।।