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भारत-भारती




विष-पूर्ण ईष्या-द्वष पहले शीघ्रता से छोड़ दो,
धर फेंकने वाली फुटली फूट का सिर फोड़ दो।
भालिन्य से मुंह मोड़ कर मद-मोह के पद तोड़ दो,
टूटे हुए वे प्रेमवन्धन फिर परस्पर जोड़ दो ।।१५।।

अागो अलग अविचार से, त्याग कुसङ्ग कुरीति का;
आगे बढ़ो निमीकता से, काम है क्या भीति छ ।
चिन्ता न विन्नों की करो, पाणिग्रहण कर नीति का-
सुर-तुल्य अजरामर' बनो, पीयूष पीकर प्रीति वा ।।१६।।

संसार की समरस्थली में धोरता धारण करो,
चलते हुए निज इष्ट-पथ में सङ्कट से मत डरो ।
जाते हुए भी मृतक-समें रह कर न केवल दिन मरो,
वर बोर वन कर आप अपनी विन्न-बाधाएँ हरो ।।१७।।

है ज्ञात क्या तुमको नहीं तुम लोग तीस करोड़ हो,
यदि ऐक्य हो तो फिर तुम्हारा कौन जग में जोड़ हो ?
उत्साहजल से सच कर हित का अखाड़ा गोड़ दो,
गर्दन अमित्र अधःपतन की ताल ठोंक मरोड़ दो।।१८।। .
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बैठे हुए हो व्यर्थ क्यों ? आगे बढ़ो, ऊँचे चढ़ो;
है भाग्य की क्या भावना ? अब पाठ पौरुष का पढ़ो ।
ई सामने का ग्रास भी मुख में स्वयं जाता नहीं !
हा ! ध्यान उद्यम का तुम्हें तो भी कभी आता नहीं ! ।।१९।।