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भविष्यत् खण्ड




लोग पीछे थे तुम्हारे, बढ़ गये, हैं बढ़ रहे,
बाछे पड़े तुम दैव के सिर दो अपना मढ़ रहे !
पर कम्-ल बिना कभी विधि-दीप जल सकता नहीं,
हैं देव था ? साँचै विना कुछ आप ढल सकता नहीं ।।२०।।

श्रो, मिले' सब देश-वान्धव हार वन र देश के,
साधक बने सब प्रेम से सुख-शान्तिमय उई श के हैं।
क्या साम्प्रदायिक भेद से है ऐक्य मिट सकता अहो !
बनती नहीं क्या एक माला विविध सुमनों की कहो ? ।।२१।।

रको परस्पर मेल मन से छोड़ कर अविवेकता,
मन का मिलन ही भिलत है, होती उससे एकल ।
तन मात्र के हो भेल में है मन सा मिलता कहाँ,
हैं बाह्य बातों से कभी अन्तःकरण खिलता नहीं ।।२२।।

सब और और विधि का बल-बोध से यारण कर,
है भिन्नता में लिन्नता हो, कता धारण करें।
हैं एकता ही मुक्ति ईश्वर-जोब के मुम्बन्ध में,
वकत हो अर्थ देती इस निकृष्ट निबन्ध में ।।२३।।

है काय चेला कौन-सा साधे न जिसको एकता ?
देतो नहीं अद्भुत अलौकित शक्ति किसको एकता ?
दो एक एकादश हुए, किसने नहीं देखे सुने” ?
हाँ, शून्य के भी योग से हैं अङ्क होते दश गुने ।।२४।।