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अतीत खण्ड

उनके चतुर्दिक-कीर्ति-पट को है असम्भव नापना,
की दूर देशों में उन्होंने उपनिवेश-स्थापना।
पहुँचे जहाँ वे अज्ञता का द्वार जानों रुक गया,
वे झुक गये जिस ओर को संसार मानों झुक गया॥२६॥

वर्णन उन्होंने जिस विषय का है किया, पूरा किया;
मानों प्रकृति ने ही स्वयं साहित्य उनका रच दिया।
चाहे समय की गति कभी अनुकूल उनके हो नहीं,
हैं किन्तु निश्चल एक से सिद्धान्त उनके सब कहीं॥२७॥

वे मेदिनी-तल में सुकृत के बीज बोते थे सदा,
परदुःख देख दयालुता से द्रवित होते थे सदा।
वे सत्त्वगुण-शुभ्रांशु से तम-ताप खोते थे सदा,
निश्चिन्त विघ्न-विहीन सुःख की नींद सोते थे सदा॥२८॥

वे आर्य्य ही थे जो कभी अपने लिये जीते न थे;
वे स्वार्थ-रत ही मोह की मदिरा कभी पीते न थे।
संसार के उपकार-हित जब जन्म लेते थे सभी,
निश्चेष्ट होकर किस तरह वे बैठ सकते थे कभी?॥२९॥

आदर्श


आदर्श-जन संसार में इतने कहाँ पर हैं हुए?
सत्कार्य्य-भूषण आर्य्य-गण जितने यहाँ पर हैं हुए।
हैं रह गये यद्यपि हमारे गीत आज रहे सहे,
पर दूसरों के भी वचन साक्षी हमारे हो रहे॥३०॥