पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/१७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६०
भारत-भारती




हमके समय को देखकर ही नित्य चलना चाहिए,
बदले हवा जब जिस तरह हमको बदलना चाहिए।
विपरोत विश्व-प्रवाह के निज नाव जा सकती नहीं,
अव पूर्व की बात समो प्रस्ताव पा सकती नहीं ॥३५॥

व्यवसाय अपने व्यर्थ हैं अब नव्य यन्त्रों के विना,
परतन्त्र हैं हम सब झहीं अब भव्य यन्त्रों के विनर ।
कल के हैलों के सामने अब पूर्व का हल व्यर्थ है,
उस वाष्प विद्युद्व ग-सम्मुख देह का बेल व्यर्थ है ।।३६।।

है बदलता रहता समय उसको सभी धान्ने नई,
कल काम में आती नहीं हैं आज की बात कई ?
है सिद्धि-मूल ग्रही कि जव जैसा प्रकृति का रङ्ग हो--
सब ठीक वैसा ही हमारी कार्य-कृति का ढङ्ग हो ।।३७।।

प्राचीन हों कि नवीन छाड़ो रूढ़ियाँ जो हों बुरी,
वन कर विवेकी तुम दिखाओ हंस-जैसी चालुरो ।
‘प्राचीन बातें ही भली हैं-यह विचार अलीक है,
जैसी अवस्था हो जहाँ वैसी व्यवस्था ठीक है ।।३८।।

सर्वत्र एक अपूर्व युग का हो रहा सञ्चार है,
देखो, दिनांदिन बढ़ रही विज्ञान का विस्तार है।
अब तो उठो, क्या पड़ रहे हो व्यर्थ सोच विचार में ?
सुख दूर, जीना भी कठिन है श्रम विना संसार में ।।३९ ।।