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भारत-भारती




ज्यों ज्यों करेंगे देर हम वे और बढ़ते जायेंगे,
यदि बढ़ गये वे और तो फिर हम न उनको पायेंगे ॥४५॥

करके उपेक्षा निज समय को छोड़ बैठे हो तुम्हीं,
दुष्कर्म करके भाग्य को भी फोड़ बैठे हो तुम्हीं।
वैठे रहोगे हाय ! कब तक और यों ही तुम कहो ?
अपनी नहीं तो पूर्वजों की लाज तो रक्खो अहो ! ।।४६।।

लो माग अपना शीघ्र ही कर्तव्य के मैदान में,
हो बद्धपरिकर दो सहारः देश के उत्थान में ।
डूबे न देखो नाव अपनी है पड़ी मॅझधार में,
हो। सहायक कम्र्म का पतवार ही उद्धार में ।। ४७।।

भूल न ऋषि-सन्तान हो; अब भी तुम्हें यदि ध्यान हो--
तो विश्व को फिर भी तुम्हारी शक्ति का कुछ ज्ञान हो ।
बन कर अहो ! फिर कम योग् वॉर बड़भागी बनो,
परमार्थ के पीछे जगत में स्वार्थ के त्यागी बनो ।।४८।।

होकर निराश कभी न बैठो, नित्य उद्योगी रहो;
सब देश-हितकर कायों में अन्योन्य सहयोगी रही।
धर्मार्थ के भोग रहो बस कर्म के योगी रहो,
रोगी रहो तो प्रेमरूपी रोग के रोगी रहो ॥४९॥

पुरुषत्व दिखलाओ पुरुष हो, बुद्धि-बल से काम लो,
तब तक न थक कर तुम कभी अवकाश या विश्राम लो---
जब तक कि भारत पूर्व के पद पर न पुनरासीन हो,
फिर ज्ञान में, विज्ञान में, जब तक न वह स्वाधीन हो ।।५०।।