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भविष्यत् खण्ड




सब से बड़ा गौरव यही तो है हमारे ज्ञान का_
जाने' बराबर विश्व के धूम रूप उस भगवान को ।
इशन्थ सारी ध्र हम अर हम सब सृष्टि में,
हैं दुर्शनों में दृष्टि जैस और दर्शन दृष्टि में ।।६२।।

सब से हमारे धर्म का ऊँचा यह तो लश्न है,
हाती अनीम अनेकता में एकता प्रत्यक्ष है ।
मति का चरता या परसता है वहा अविभिन्नत,
बस छ हो सर्वत्र ऋभु को कि दिवसई ।।६३।।

भगवान कहते हैं स्वयं हो, भेद भाव को त,
हे रूप में ही मुझे जो सर्व भूत में भजे ।
जो जान्ता मात्र में मुने, सबके मुझ में नr;
हैं मालतु सुके हइउरई को मानता : ६।।४॥

हे माय ! भचार के आदेश का पालन करा,
अनुदार, भाव-कल- झु-प्रक्षालन कर !
नवनीत-तुल्य या हो सब भाइयों के ताप में,
समें समझ कर अपके, सबको समझ ले अपमें ।।६५।।

१--इस पद्य की रवन! अंमद्भगवद्गीता के निम्नलिरिल श्लोक ॐ आधार पर की गई है--
यो मां श्मति सर्वत्र सत्र में मयि पश्यति ।
तस्थाई न प्रयास का च में न पश्यति ।
सर्व भूलस्थितं य भां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा चेतं माप से योग भय ज्ञहै