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भारत-भारती




बस मर्म स्वार्थ-त्याग ही तो है हमारे इम्म का,
है ईश्वरार्पण सर्वदा सब फल हमारे कर्म का ।
निष्कर होना ही हमारा निरुपमेय महत्व हैं,
प्रभु का स्वयं श्रीमुख-कथित गोता-ग्रथित यह तत्त्व है ॥६६॥

इतिहास है, हम पूरी में स्वार्थी कमी होते न थे;
सुख-बीज हम अपने लिए ही विश्व में बीते न थे ।
तब तो हमारे अर्थ यह संसार ही सुख-स्वर्ग था,
मानों हमारे हाथ पर रक्खा हुआ अपव था ।। ६७ ।।

हम पर-हितार्थ सहवं अपने प्राण भी देते रहे,
हाँ, लोक के उपकार-हित हो जन्म हम लेते रहे ।
सर भी परीक्षक हैं हसारे धस्म के अनुराग के
इतिहास और पुराण हैं साक्षो हमारे त्याग के ।।६८।।

हैं जानते यह सत्व जो जन आज भी वे मान्य हैं,
चाहे विदा ही पा रहे थे सब कहीं प्राधान्य हैं।
जग में न उनको प्राप्त हो जो कौन ऐसी सिद्ध है ?
उनके पदों पर लोटतो सब ऋद्धियों की वृद्धि है ।।६९॥

करते उपेक्षा यदि न हम उस उच्चतम उद्दश की,
तो अज यह अवनति नहीं होतो हमारे देश की ।
यदि इस समय भी सजा हो तो भी हमारा भाग्य है,
पर कर्म के तो नाम से ही अब हमें वैराग्य है ! ।।७७।।

सच्चे प्रयत्न कभी हमारे व्यर्थ हो सकते नहीं,
संसार भर के विन्न भी उनको डुबो सकते नहीं !