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भारत-भारती




निज दुर्दशा पर आज भी क्यों ध्यान तुम देते नहीं है।
अत्यन्त ऊँचे से गिरे हा! किन्तु तुम देते नहीं !
अब भी न आँखे खेळ कर. क्या तुम बिलोकेागे कहो ?
अब भी कुपथ की ओर से मन के न रोकेगे कहो ? ।। ७७ ॥

वीरो ! उठो, अब तो कुयश की कालिमा के मेंट दे,
निज देश के जीवन सहित तन, भन तथा धन भेट दे ।
रघु, भि, भीष्म तथा युधिष्ठिर-सम न हो जो ओज-
से ते वीर विक्रम-से बने, विद्यानुरागी भाज-से ।। ७८ ।।

जैश्यो ! सुने, व्यापार सारा मिट चुका है देश का,
सब धन विदेशी हर रहे हैं, पर हैं क्या क्लेश का ?
अव भी न यदि कर्तव्य का पालन करोगे तुम यहाँ ते पास हैं
वे दिन कि जब भूखों मरोगे तुम यहाँ ! ॥ ७९ ॥

अब ते उठो, हे बन्धुओं ? निज देश की जय बोल दे;
बनने ली सब वस्तुएँ, कलकारखाने खेल दे ।।
जावे यहाँ से और कच्चा माल अब बाहर नहीं-
हो मेडइन' के बाद बस अब 'इंडिया' ही सब कहीं ।। ८० ।।

है आज भी रत्न-प्रसू वसुधा यहाँ की-सी कहाँ ?
पर लाभ उससे अब उठाते हैं विदेशी हीं यहाँ !
उद्योग घर में भी अहो ! हमसे किया जाता नहीं,
हम छाल-छिलके चूसते हैं, रस पिया जाता नहीं ! ! ।। ८१ ॥

शुद्रो ! उठो, तुम भी कि भारत-भूमि डूबी जा रही,
हैं योगियों के भी अमि जो ब्रत तुम्हारा है वही ।