पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/१८

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भारत-भारती


गौतम, वशिष्ठ-समान मुनिवर ज्ञान-दायक थे यहाँ,

मनु, याज्ञवल्क्य-समान सत्तम विधि-विधायक थे यहाँ ।

वाल्मीकि गेदव्यास से गुण-गान-पायक थे यहाँ,

पृथु, पुरु, भरत, रघु-से अलौकिक लोकनायक थे यहाँ॥३१॥

लक्ष्मी नहीं, सर्वस्व जाणे, सत्य छोड़ेंगे नहीं;

अन्धे वनें पर सत्य से सम्बन्ध तोड़ेंगे नहीं।

लिज' सुप्त-मरा स्वीकार है पर वचन की रक्षा रहे,

है कौन जो उन पूर्वजों के शील की सीमा कहे ? ।। ३२ ।। -यह यः सत्यवत, अलर्क, मयूरध्वज और रुश्माङ्गद आदि सत्य- पलिन राजाओं को लक्ष्य करके लिया गया है। मयूरध्वज आदि की कथाएं तो प्रसिद्ध ही हैं, सत्यनत की कथा इस प्रकार है-

राजा सत्यव्रत का यह नियम था कि उसके बाजार में जो चीजें विवने के लिए आवें वे यदि दिन भर में न बिक सकें तो शाम को स्वर राजा उन्हें खरीद लेगा । राजा सहा अपने इस नियम का पालन करता था। एक दिन एक लुहार लोहे की बनी हुई शनिश्चर की मूर्ति लाया और कहने लगा कि इसका मूल्य एक लाख रुपया है। पर जो कोई इसे स्वरीदेगा उसे लक्ष्मी, धर्म, कर्म, और यश आदि सब छोड़ जागे । उसकी ऐसी बाते सुन कर उस मूर्ति को किसीने न खरीदा। नियमानुसार शाम को वह मूर्ति राजा के सामने लाई गई । राजा ने सध्थ कुछ सुन समझ कर मी उसको खरीद लिया। अपने नियम को नहीं तोड़ा। आधी रात के वक्त एक सुन्दर ही ने भाकर राना से कहा कि मैं तुम्हारी राजलक्ष्मी हूँ। तुम्हारे यहाँ शनिश्चर आ गया, अब मैं नहीं रह सकती। मुझको विदा दीजिए ! साने दहा जाओ। फिर इसी तरह धर्म, कर्म और यश भी विदा हुए । अन्त में सत्यदेव माये,