है तीर्थगुरुओ ! सेचि ले, कैसा तुम्हारा नाम है,
थजमान का उद्धार करना ही तुम्हारा काम है ।
पर आज आत्म-सुधार के भी दीखते लक्षण आहाँ ?
खेतो, उठो, फिर तुम हमारे कर्णधार इन यहाँ ॥८८।।
हे शिक्षित ! कुछ कर दिखाओ, ज्ञान का फल है यही,
हो दूसरों को लाभ जिससे श्रेष्ठ विद्या है वही ।।
संख्या तुम्हारी अल्प हैं, उसको बढ़ाओ शीघ्र ही,
'नीचे पड़े हैं जो उन्हें ऊपर चढ़ाओ शीध्र हो ।।८९॥
अपने अशिक्षित भाइयों को प्रेमपूर्वक हित करी-
उनकी समुन्नति में उन्हें उत्साह-युत परिचित करो ।
ज्ञानानुभव से तुम न निज साहित्य को वञ्चित करो-
पाओ जहाँ जो बात अच्छी शीघ्र ही सञ्चित करो ।।९०।।
ता • है देशनेताओ ! तुम्हीं पर सब हमारा भार है
जीते तुम्हारे जीत है, हारे तुम्हारे हार है।। निःस्वार्थ,
निर्भय माव से निज नीति पर निश्चल रहो,
- राष्ट्र वयं जागृयाम पुरोहिताः स्वाहा” कहो।।९१।।
करते रहोगे पि-पोषण और कब तक कविवरो !
कच,कुच, कदक्षों पर अहो ! अब तो न जीते जी म ।
है बन चुका शुचि अशुचि अव तो कुरुचि के छोड़ भला,
अब ते दुध कर के सुचि का तुम न यों घोंटो गला ।।९२॥