पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/१९

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अतत खण्ड सर्बस्व करके दनि जे चालीस दिन भूखे रहे, अपने अतिथि-लत्कार में फिर भी न जो रूखे रहे । पर-तृप्ति कर निजतृप्ति साती रन्तिदेव नरेश ने, ऐसे अतिथि सन्तोष-कर पैदा किये इस देश ने ।। ३३ ।। अमिष दिया अपना जिन्होंने श्येन-भक्षण के लिये, जो बिक गए चाण्डाल के घर सत्य-रक्षण के लिये ! दे दी जिन्होंने अस्थियाँ परमार्थ-हित जानी जहाँ, । शिवि, हरिश्चन्द्र, दच-से होते रहे दानी यहाँ ।।३४ ।। सत्पुत्र पुरु-ले थे जिन्होंने तात-हित सब कुछ सहा, भाई भरत-से थे जिन्होंने राज्य भी त्यागा अहा ! जे धीरता के, वीरता के प्रौढ़तम पालक हुए, प्रह्लाद, च, कुश, लव तथा अभिमन्यु-सम बालक हुए ।।३५}} वह भीष्म का इन्द्रिय-दमन, उनकी धरा-सी धीरता, वह शील उनका और उनकी ओरती, गम्भीरता । उनकी सरलता और उनको वह झिशाल विकता, है एक जन के अनुकरण में सब गुणों की एकता ।। ३६ ।। और बोले कि हे राजा ? मैं सदों हूँ ! शनिश्चर के फ़ारण मैं अय नहीं रह सकता, जाता हैं । इज दे उठ करे हाथ पकड़ लिया और कहा कि लक्ष्मी, धर्म और यश जो तो भले ही चले जाईं; पर अप कहाँ जाते हैं ? आपो रखने के लिए ही तो मैंने शनिश्चर की मूर्ति ली है ! सत्य से उत्तर देते न जल : जब सत्य न गया तब लक्ष्मी, धम्म और ग्रश अदि सव लौट र ।